रावण -
हर साल इसे जलाया जाता है,
हर साल ये अपना कद बढ़ा कर फिर आ जाता है,
हर साल इसके अंत पर हम खुश हो जाते हैं, अपने आप को बहलाते हैं, फुसलाते हैं;
और अगले ही पल नए रावण की तैयारी में लग जाते हैं.
देखो शर्म से झुकी हुई है अच्छाई,
क्यूंकि उसे भी मालुम है सच्चाई,
क्यूंकि उसे भी मालुम है सच्चाई,
कि ये जीत, ये ख़ुशी, झूठी है,
क्योंकि अगले बरस यह रावण फिर आयेगा,
सच्चाई को कोने में खड़ा देख फिर मुस्कराएगा.
इस बार दृड़ मन की अग्नि में इसे इतना जलाएं, इतना तपाएं,
के अगले वर्ष हम बुराई की झूठी हार नहीं, अच्छाई की सच्ची निरन्तरता मनाएं.
- विनय